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बुधवार, 29 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

वो इन चालाकियों से आपसी व्यापार करते हैं
जमाना सोंचता है कि रूहानी प्यार करते हैं

अभी पहुंचा हूँ मै अपने उमर की  उन फसीलों पर
जहाँ पर लोग परदे डालते हैं ,आड़ करते हैं

दिखाते रौब हैं जो रात-दिन बीबी बिचारी पर
न जाने कितना अफसर का वही मनुहार करते हैं

बड़े होने से पहले जान लो बेटे रवायत को
कहाँ स्वीकार करते हैं,कहाँ इनकार करते हैं

लरजती उँगलियों से कांपती हुई झुर्रियां गिनकर
थके से जिस्म अपनी रात को गुलजार करते हैं

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया ग़ज़ल सौरभ जी..... एक शेर में आप पूरी किताब कह जाते हैं... हर शेर मुक्कमल है... खास तौर पर अंतिम शेर में आपने जीवन की सांझ में एकाकीपन के दर्द को बया कर दिया है.. बहुत बढ़िया ग़ज़ल सौरभ जी....

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  2. सौरभ जी,

    बहुत दिनों बाद आपकी कोई पोस्ट आई.......बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है आपने....हर शेर उम्दा बन पड़ा है......बहुत खूब......नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें|

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  3. बड़े होने से पहले जान लो बेटे रवायत को
    कहाँ स्वीकार करते हैं,कहाँ इनकार करते हैं

    लरजती उँगलियों से कांपती हुई झुर्रियां गिनकर
    थके से जिस्म अपनी रात को गुलजार करते हैं
    कमाल कर दिया है आपने...बधाई...
    नीरज

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