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सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

ऑन वैलेंटीन डे

संशयग्रस्त तो वह शुरू से था
उसे यकीन होना अब शुरू हुआ था
आकर्षण का मनोविज्ञान  भरसक मथने
और किताब के किताब चाटने के बाद
'प्रेम सच नहीं है
सच है वासना '
इसके अलावा वह दिल से ईमानदार भी होना चाहता था
उस औरत को साफ-साफ बतलाना चाहता था
कि वह प्रेम से अभिभूत नहीं है
वासना से वशीभूत है .

मगर वह औरत तो जैसे अपनी ही दुनिया में जी रही थी
जब-तब वह उसकी गंभीर लगने वाली बातों को
हँसी में उड़ा देती
और कभी-कभार उसके दार्शनिक चेहरे पर
फेंक कर मारती अपना चेहरा
वैसे भी शब्दों पर उसकी पकड़ वैसी नहीं थी
जैसी उन के गोलों और सलाइयों पर
वह मन ही मन कुढ़ ही रहा होता
कि वह गर्म पतीले को पकड़
अपनी उंगलियाँ जला डालती
'किन ख्यालों में खोई रहती हो तुम'
उसे यही  कह कर चुप हो जाना पड़ता.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही खूबसूरत.......प्रेम और वासना....बहुत बारीक़ फर्क है इनमे....बहुत सुन्दर|

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  2. वर्षों बाद तुम्हे कविता की ओर लौटा देखकर काफी सुकुन मिला ...अच्छी कविता लिखी है...संवेदना भी है और संप्रेषणीयता भी...

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